श्रीमद्भगवद्गीता – प्रथम अध्याय (अर्जुनविषादयोग)
श्रीमद्भगवद्गीता – प्रथम अध्याय (अर्जुनविषादयोग)
श्लोक 1-10
धृतराष्ट्र उवाच |
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय || 1 ||
अर्थ – धृतराष्ट्र ने पूछा:
हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध के इच्छुक मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया? (1)
सञ्जय उवाच |
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा |
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् || 2 ||
अर्थ – संजय ने कहा: तब राजा दुर्योधन ने पांडवों की सेना को व्यवस्थित देख कर, आचार्य द्रोण के पास जाकर यह वचन कहा। (2)
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् |
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता || 3 ||
अर्थ – हे आचार्य! देखिए, पांडु के पुत्रों की इस महान सेना को, जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र ने व्यवस्थित किया है। (3)
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि |
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ: || 4 ||
अर्थ – इस सेना में बहुत से शूरवीर धनुर्धारी हैं, जो युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं; और युयुत्सु, विराट और महारथी द्रुपद हैं। (4)
धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान् |
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गव: || 5 ||
अर्थ – धृष्टकेतु, चेकितान, वीर्यवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और शैब्य, जो श्रेष्ठ मनुष्यों में हैं। (5)
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा: || 6 ||
अर्थ – विक्रांत युधामन्यु और वीर्यवान उत्तमौजा, सौभद्र (अभिमन्यु) और द्रौपदी के पाँच पुत्र, ये सभी महारथी हैं। (6)
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम |
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते || 7 ||
अर्थ – हे द्विजोत्तम! अब आप मेरे श्रेष्ठ योद्धाओं को जानिए, जो मेरी सेना के नायक हैं। मैं आपको उनकी जानकारी देता हूँ। (7)
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजय: |
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च || 8 ||
अर्थ – आप, भीष्म, कर्ण और संग्राम में विजयी कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सौमदत्ति। (8)
अन्ये च बहव: शूरा मदर्थे त्यक्तजीविता: |
नानाशस्त्रप्रहरणा: सर्वे युद्धविशारदा: || 9 ||
अर्थ – इसके अलावा, कई अन्य शूरवीर भी हैं, जिन्होंने मेरे लिए अपने प्राणों की आहुति दी है, और जो विभिन्न हथियारों से सुसज्जित हैं और सभी युद्ध में निपुण हैं। (9)
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् |
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् || 10 ||
अर्थ – हमारी सेना, जो भीष्म द्वारा संरक्षित है, असीमित है; जबकि पांडवों की सेना, जो भीम द्वारा संरक्षित है, सीमित है। (10)
श्लोक 11-20
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥ 11 ॥
अर्थ – हे भीष्म! और जो अन्य योद्धा हैं, वे सभी अपने-अपने स्थानों पर, व्यवस्थित होकर, हर दिशा में भीष्म की रक्षा करें। (11)
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥ 12 ॥
अर्थ – तब कुरु वंश के वृद्ध पितामह भीष्म ने, हर्षित होकर सिंहनाद के समान गर्जना की और अपने शंख को जोर से बजाया। (12)
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥ 13 ॥
अर्थ – इसके बाद, शंख, भेरी, ढोल, नगाड़े और नरसिंगा एक साथ बजने लगे, जिससे बहुत बड़ा ध्वनि उत्पन्न हुआ। (13)
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥ 14 ॥
अर्थ – फिर, सफेद घोड़ों से जुते हुए अपने महान रथ में स्थित श्रीकृष्ण और अर्जुन ने दिव्य शंख बजाए। (14)
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः॥ 15 ॥
अर्थ – श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य और अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया। भीमसेन, जो महान योद्धा हैं, ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया। (15)
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥ 16 ॥
अर्थ – कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक शंख बजाया। नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाए। (16)
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥ 17 ॥
अर्थ – परम धनुर्धर काशीराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट और अपराजित सात्यकि ने भी शंख बजाए। (17)
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक् पृथक्॥ 18 ॥
अर्थ – महारथी द्रुपद, द्रौपदी के पांच पुत्र और महान योद्धा अभिमन्यु ने भी विभिन्न शंख बजाए। (18)
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन्॥ 19 ॥
अर्थ – वह घोष, धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदयों को चीर देने वाला था और आकाश और पृथ्वी में गूंज उठा। (19)
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥ 20 ॥
अर्थ – फिर, जब अर्जुन, जिनके रथ पर हनुमान का ध्वज है, ने व्यवस्थित धार्तराष्ट्रों को देखा और युद्ध शुरू होने वाला था, तब उन्होंने अपना धनुष उठाया। (20)